Biodiversity in Hindi – जैव विविधता | Biology | Science

जैव विविधता

Friends, today we are going to study about Biodiversity in Hindi. Which we will understand in detail. So let’s know What is Biodiversity in Hindi?

जैव विविधता (Biodiversity in Hindi)

Biodiversity in Hindi
Biodiversity in Hindi

जैव विविधता से तात्पर्य हे (Meaning of Biodiversity in Hindi) विभिन्न जीव रूपों में पाई जाने वाली विविधता से है। जीवों के वर्गीकरण में उनके लक्षणों की अहम् भूमिका होती है। अर्थात् जीवों का वर्गीकरण उनके लक्षणों पर आधारित है।
पृथ्वी पर कर्क रेखा और मकर रेखा के बीच के क्षेत्र में जो गर्मी और नमी वाला भाग है, वहाँ पौधों और जन्तुओं में काफी विविधता पाई जाती है। अतः यह क्षेत्र मेगाबायोडाइवर्सिटी क्षेत्र कहलाता है।

व्हिटेकर द्वारा प्रस्तावित पाँच जगत वर्गीकरण

राबर्ट व्हिटेकर (1959) द्वारा प्रस्तावित वर्गीकरण में पाँच जगत है –

  • मोनेरा
  • प्रोटिस्टा
  • फंजाई
  • प्लांटी
  • ऐनिमेलिया

ये समूह कोशिकीय संरचना पोषण के स्त्रोत और तरीके तथा शारीरिक संगठन के आधार पर बनाया गए। विभिन्न स्तरों पर जीवों को उप समूहों में वर्गीकृत किया गया है- फाइलम (डिवीजन), वर्ग (क्लास), गण (ऑर्डर), कुल (फैमिली), वंश (जीनस)।

मोनेरा

ये प्रोकेरियोटिक जीव है। इन जीवों में ना तो संगठित केन्द्रक और कोशिकांग होते हैं और न ही उनके शरीर बहुकोशिक होते हैं। इनमें कुछ में कोशिका भित्ति पाई जाती है तथा कुछ में नहीं। पोषण के स्तर के आधार पर ये स्वापोषी या विषमापोषी दोनों हो सकते है। उदाहरण: जीवाणु, नील-हरित शैवाल (सायनोबैक्टीरिया), माइकोप्लाज्मा।

प्रोटिस्टा

इसमें एककोशिक यूकैरियोटी जीव आते हैं। इस वर्ग के कुछ जीवों में गमन के लिए सीलिया, फ्लैजिया नामक संरचनाएँ पाई जाती है। ये स्वपोषी और विषमपोषी दोनों तरह के होते हैं। ये अलैंगिक जनन, कोशिका संलयन एवं लैंगिक जनन युग्मनज बनने की विधि द्वारा करते है। उदाहरण: एककोशिका शैवाल, डायटम, प्रोटोजोआ इत्यादि।

फंजाई/कवक

ये विषमपोषी यूकैरियोटी जीव है। ये पोषण के लिये सड़े गले कार्बनिक पदार्थों पर निर्भर रहते हैं, इसलिए इन्हें मृतजीवी कहा जाता है। इनमें हरित लवक अनुपस्थित होने के कारण प्रकाश संश्लेषण नहीं होता है। कुछ फंजाई सजीव पौधों व जन्तुओं पर पोषण के लिए निर्भर रहती है जिन्हें परजीवी कहते है। ये पादपों व जन्तुओं में रोग का कारण होते हे।

  • कवकों की कुछ प्रजातियाँ नील-हरित शैवाल के साथ स्थायी संबंध बनाती है जिसे सहजीविता कहते है। ऐसे सहजीवी जीवों को लाइकेन कहा जाता है। ये लाइकेन अक्सर पेडों की छालों पर रंगीन धब्बों के रूप में दिखाई देते है।
  • फंजाई तंतुमयी होती है, लेकिन यीस्ट जो एककोशिक है, इसका अपवाद है। ये पतली लम्बी धागों की तरह संरचनाएँ होती है, जिन्हें कवकतंतु (माइसीलियम) कहते है। फंजाई की कोशिका भित्ति काइटिन तथा पाॅलिसेकैराइड की बनी होती है। फंजाई में कायिक जनन विखण्डन तथा मुकुलन विधि द्वारा अलैंगिक जनन बीजाणु द्वारा व लैंगिक जनन ऐस्को बीजाणु, बेसिडियों बीजाणु द्वारा होता है। उदाहरण: यीस्ट, मशरुम।

 

  • प्लांटी – इस वर्ग में कोशिका भित्ति वाले बहुकोशिक यूकैरियोटी जीव आते है। ये स्वपोषी होते है और प्रकाश संश्लेषण के लिए क्लोरोफिल का प्रयोग करते हैं व भोजन बनाते है। पौधों में शरीर के प्रमुख घटकों के विभेदन, पादप शरीर में जल और अन्य पदार्थों को संवहन करने वाले विशिष्ट ऊतकों की उपस्थिति, बीज धारण क्षमता के आधार पर पादपों को क्रमश: थैलोफाइटा, ब्रायोफाइटा, टेरिडोफाइटा, अनावृतबीजी व आवृतबीजी प्रभागों में विभाजित किया गया है।

थैलोफाइटा

इन पौधों की शारीरिक संरचना में विभेदीकरण नहीं होता है। ऐसा पादप शरीर थैलस कहलाता है। इस वर्ग के पौधों को सामान्यतया शैवाल कहा जाता है। शैवाल कायिक, अलैंगिक तथा लैंगिक जनन करते है। कायिक जनन विखण्डन द्वारा, अलैंगिक जनन बीजाणुओं द्वारा व लैंगिक जनन दो युग्मकों के संलयन से होता है। ये मुख्य रूप से जल में पाए जाते है। उदाहरण क्लैमाडोमोनास, यूलोथ्रिक्स, स्पाइरोगाइरा, वालवाॅक्स, कारा।

ब्रायोफाइटा

इस वर्ग के पौधों को पादप वर्ग का उभयचर कहा जाता है क्योंकि यह भूमि पर भी जीवित रह सकत है परन्तु लैंगिक जनन के लिए जल निर्भर रहते है। इन पादपों में वास्तविक मूल, तना तथा पत्तियाँ नहीं होती। इनमें मूलसम, पत्तीसम तथा तनासम संरचनाएँ होती है। ये एक कोशिकीय बहुकोशिकीय मूलाभासों द्वारा जुड़े रहते है। ब्रायोफाइट में लिवरवर्ट व माॅस आते हैं, जिनमें अलैंगिक जनन थैलस के विखण्डन तथा संरचना गेमा द्वारा होता है तथा लैंगिक जनन युग्मकोद्भिद के पुंधानी व स्त्रीधानी से उत्पन्न पुमणु व अंड के संयोजन से होता है। उदाहरण: माॅस, मार्केंशिया।

टेरिडोफाइटा

इस वर्ग के पौधों का शरीर जड़, तना तथा पत्ती में विभाजित होता है। इनमें एक भाग से दूसरे भाग तक जल तथा अन्य पदार्थों के संवहन के लिए संवहन ऊतक जायलम व फ्लोएम पाए जाते हैं। ये सामान्यतः नम स्थानों पर पाये जाते है। उदाहरण:- मार्सीलिया, फर्न, हाॅर्स-टेल इत्यादि।

  • थैलोफाइटा, ब्रायोफाइटा व टेरिडोफाइटा में जननांग अप्रत्यक्ष होते हैं तथा इनमें फल व बीज उत्पन्न करने की क्षमता नहीं होती है अतः ये क्रिप्टोगेम्स कहलाते है। परन्तु टेरिडोफाइटा प्रभाग के पादपों में संवहन ऊतक की उपस्थिति के कारण संवहनी क्रिप्टोगेम्स कहलाते है। टेरिडोफाइटा प्रभाग के पादपों में बीजाणु द्वारा तथा पुंधानी व स्त्रीधानी से उत्पन्न पुमणु के संयोजन द्वारा जनन होता है। उदाहरण: मार्सीलिया, सलेजीनेला, इक्वीसिटम।

अनावृतबीजी

(जिम्नों का अर्थ है – नग्न तथा स्पर्मा का अर्थ है – बीज; नग्नबीजी) ऐसे पौधे जिनमें बीजाण्ड अण्डाशय से ढके हुए नहीं होते और ये निषेचन से पूर्व तथा बाद में भी अनावृत रहते है। इन्हें नग्नबीजी पौधें भी कहा जाता है। ये मध्यम या लम्बे वृक्ष तथा झाडियाँ होती है। इनमें मूसला मूल पायी जाती है तथा कुछ पादपों की जड़े कवकों से सहायोग कर लेती है जिसे कवकमूल कहते है। जैसे पाइनस। जबकि कुछ पादपों में छोटी विशिष्ठ मूल नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले साइनोबैक्टीरिया से सहयोग कर लेती है जिसे प्रवालमूल कहते है। जैसे साइकस। जिम्नोस्पर्म में जनन बीजाणु द्वारा तथा शुक्राणु व अण्ड संयोजन से होता है। उदाहरण: साइकस, पाइनस।

आवृतबीजी

एंजियों का अर्थ है – ढका हुआ और स्पर्मा का अर्थ है – बीज अर्थात् इन पौधों के बीज फलों के अंदर ढके होते है। इनके बीजों का विकास अंडाशय के अंदर होता है, जो बाद में फल बन जाता है। इन्हें पुष्पी पादप भी कहा जाता है। इन पादपों में भोजन का संचय बीजपत्र या भ्रूणपोष में होता है। बीजपत्रों की संख्या के आधार पर एक बीजपत्री पौधों को एक बीजपत्री व दो बीच पत्र वाले पौधों को द्विबीजपत्री कहा जाता है। इन पादपों में कायिक जनन व नर युग्मक व मादा युग्मक के संयोजन द्वारा लैंगिक जनन होता है। उदाहरण: सरसों, आम, बरगद।

एनिमेलिया

इस वर्ग में यूकैरियोटी, बहुकोशिक और विषमपोषी जीवों को रखा गया है। इनकी कोशिकाओं में कोशिका भित्ति नहीं पाई जाती है। अधिकतर जंतु चलायमान होते है। नोटोकाॅर्ड की उपस्थिति के आधार पर ऐनिमेलिया को दो भागों अपृष्ठवंशी या पृष्ठवंशी में बाँटा गया है।

अपृष्ठवंशी

इनमें कशेरूक दण्ड का अभाव होता है। शारीरिक संरचना के आधार पर इन्हें निम्न भागों में बाँटा गया है:

  • पोरीफेरा
  • निडेरिया
  • प्लेटीहैल्मिन्थिज
  • एस्केहैल्मिन्थीज
  • ऐनालिडा
  • आथ्र्रोपोडा
  • मोलस्का
  • इकाइनोडर्मेटा
पोरीफेरा

पोरीफेरा का अर्थ – छिद्र युक्त जीवधारी है। ये अचल जीव हैं, जो किसी आधार से चिपके रहते हैं। इनके पूरे शरीर में अनेक छिद्र पाए जाते है। जिन्हें ऑस्टिया कहते है। ये छिद्र शरीर में उपस्थित नाल प्रणाली से जुड़े होते हैं, जिनके माध्यम से शरीर में जल, ऑक्सीजन और भोज्य पदार्थों का संचरण होता है। इनका शरीर कठोर आवरण या बाह्य कंकाल से ढका होता है। इनकी शारीरिक संरचना अत्यंत सरल होती है। इन्हें सामान्यतः स्पंज के नाम से जाना जाता है, जो बहुधा समुद्री आवास में पाए जाते है। उदाहरण: साइकाॅन, यूप्लेक्टेला, स्पांजिला, युस्पांजिया इत्यादि।

निडेरिया/सीलेंटरेटा

यह जलीय जंतु है। इनका शारीरिक संगठन ऊतकीय स्तर का होता है। शरीर द्विकोरकी एवं अरीय सममित होता है। इनमें एक देहगुहा पाई जाती है। इनका शरीर कोशिकाओं की दो परतों (आंतरिक एवं बाह्य परत) का बना होता है। इनके स्पर्शक या शरीर में अन्य स्थानों पर दंश कोशिकाएँ पायी जाती है। इनकी कुछ जातियाँ समूह में रहती हैं, (जैसे – कोरल) और कुछ एकांकी होती है (जैसे-हाइड्रा)। उदाहरण: हाइड्रा, समुद्री एनीमोन, जेलीफिश इत्यादि।

प्लेटीहेल्मिन्थीज

इनका शरीर पृष्ठाधार रूप से चपटा होता है व द्विपाश्र्वसममित होता है अर्थात् शरीर के दाएँ और बाएँ भाग की संरचना समान होती है। शारीरिक संगठन अंग स्तर का होता है। इनका शरीर त्रिकोरक होता है अर्थात् इनका ऊतक विभेदन तीन कोशिकीय स्तरों से हुआ है। ये अधिकांशत: मनुष्य व अन्य प्राणियों में परजीवी के रूप में रहते है। वास्तविक देहगुहा का अभाव होता है। उदाहरण: लिवरफ्लुक, टीनिया (फीता कृमि), प्लेनेरिया, आदि।

एस्केहैल्मिन्थीज

इस संघ के जन्तुओं का शरीर बेलनाकार होता है, इसलिये इन्हें गोल कृमि भी कहते है। ये मुक्तजीव जलीय परजीवी होते है। द्विपाश्र्वसममित, त्रिकोरिक तथा कूटप्रगुही प्राणी होते हैं। इनका शारीरिक संगठन अंग-तंत्र स्तर का होता है। उदाहरण: एस्केरिस, वुचेरेरिया।

ऐनेलिडा

ऐनेलिड जंतु द्विपाश्र्वसममित एवं त्रिकोरिक होते है। इनमें वास्तविक देहगुहा पाई जाती है। इससे वास्तविक अंग शारीरिक संरचना में निहित होते है अतः अंगों में व्यापक भिन्नता होती है। जलीय एनीलिड अलवण एवं लवणीय जल दोनों में पाए जाते हैं। इनमें संवहन, पाचन, उत्सर्जन और तंत्रिका तंत्र पाये जाते है। ये जलीय एवं स्थलीय दोनों होते हैं। उदाहरण: केंचुआ, नेरीस, जोंक इत्यादि।

आथ्र्रोपोडा

(आथ्रो संधित व पोडास-उपांग) यह जंतु जगत का सबसे बड़ा संघ है। ये द्विपाश्र्व सममिति त्रिकोरकी व प्रगुही प्राणी है और शरीर खंडयुक्त होता है व सिर, वक्ष, उदर में विभाजित होता है। इनमें खुला परिसंचरण तंत्र पाया जाता है। अतः रुधिर वाहिकाओं में नहीं बहता। देहगुहा रक्त से भरी होती है। इस संघ में कीट वर्ग प्रमुख है। अधिकांश कीटों में पंख उपस्थित होते है। इनमें उत्सर्जन मैलपिगी नलिकाओं द्वारा होता है। इनमें जुड़े हुए पैर पाए जाते हैं। शरीर काइटिन के बाह्य कंकाल से ढका रहता है। उदाहरण: झींगा, तिलचट्टा, घरेलू मक्खी, तितली, मक्खी, मकड़ी, बिच्छू, केंकड़े इत्यादि।

मोलस्का

ये भी द्विपाश्र्वसममिति, त्रिकोरकी तथा प्रगुही प्राणी है। इनकी देहगुहा बहुत कम होती है तथा शरीर में थोड़ा विखंडन होता है। ये जलीय या स्थलीय होते है। अधिकांश मोलस्का जंतुओं में कैल्सियम कवच पाया जाता है। इनमें खुला संवहनी तंत्र तथा उत्सर्जन के लिए गुर्दे जैसी संरचना पाई जाती है। जैसे घोंघा, सीप, काइटाॅन, ऑक्टोपस आदि।

इकाइनोडर्मेटा

इकाइनोडर्मेटा अर्थात् शूल युक्त शरीर। अतः इन जंतुओं की त्वचा काँटों से आच्छादित होती है। ये मुक्त जीवी समुद्री जंतु है। ये अरीय सममित, देहगुहा युक्त त्रिकोरिक जंतु है। शारीरिक संगठन अंग तंत्र स्तर का होता है। इनमें विशिष्ट जल संवहन नाल तंत्र पाया जाता है, जो उनके गमन, भोजन पकड़ने व श्वसन में सहायक हैं। इनमें कैल्सियम कार्बोनेट का कंकाल एवं काँटें पाए जाते है। उदाहरण: स्टारिफिश, समुद्री अर्चिन, समुद्री खीरा, भंगुरतारा इत्यादि।

पृष्ठवंशी

इनमें नोटोकाॅर्ड, वास्तविक मेरूदण्ड एवं अतः कंकाल पाया जाता है। ये द्विपाश्र्व सममित, त्रिकोरकी व देहगुहा वाले जन्तु है। इनमें ऊतकों एवं अंगों का जटिल विभेदन पाया जाता है। इनके पाँच प्रकार है-

  • मत्स्य
  • उभयचर
  • सरीसृप
  • पक्षी
  • स्तनधारी।
मत्स्य

ये मछलियाँ है, जो समुद्र और अलवणीय जल दोनों जगहों पर पाई जाती है। इनका हृदय द्विकक्षीय होता है। इनकी त्वचा शल्क अथवा प्लेटों से ढकी होती है तथा मांसल पूँछ का प्रयोग तैरने के लिए करती है। श्वसन के लिए गिल्स पाये जाते है। इनका शरीर धारारेखीय होता है। कंकाल अस्थि व उपास्थि दोनों का बना होता है उदाहरण रोहू, कुत्तामछली, विद्युतमछली, आरा मछली।

उभयचर

ये जल व स्थल दोनों स्थानों पर रह सकते है। इनमें शल्क नहीं पाए जाते है। इनकी त्वचा पर श्लेष्म ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं तथा हृदय त्रिकक्षीय होता है। इनमें बाह्य कंकाल नहीं होता है। वृक्क पाए जाते हैं। श्वसन क्लोम, फेफड़ों व त्वचा द्वारा होता है। ये असमतापी तथा अंडे देने वाले जंतु है। उदाहरण: मेंढक, सेलामेंडर, टोड आदि।

सरीसृप

ये असमतापी जंतु है। इनका शरीर शल्कों द्वारा ढका होता है। इनमें श्वसन फेफड़ों द्वारा होता है। हृदय सामान्यतः त्रिकक्षीय (दो आलिन्द, एक निलय) होता है लेकिन मगरमच्छ का हृदय चार कक्षीय होता है। वृक्क पाया जाता है। ये भी अंडे देने वाले प्राणी है। इनके अंडे कठोर कवच से ढके होते हैं तथा उभयचर की तरह इन्हें जल में अंडे देने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। उदाहरण: कछुआ, साँप, छिपकली, मगरमच्छ, वृक्ष छिपकली।

पक्षी

सभी पक्षियों को एक वर्ग में रखा गया है। ये समतापी तथा अण्डप्रजक प्राणी है। इनका हृदय चार कक्षीय होता है। इनके दो जोड़ी पैर होते हैं। इनमें आगे वाले दो पैर उड़ने के लिए पंखों में परिवर्तित हो जाते हैं। शुतुर्मुर्ग उड़ नहीं पाता है। शरीर परों से ढका होता है। श्वसन फेफड़ों द्वारा होता है। इनमें अंतः कंकाल की अस्थियाँ लम्बी व खोखली होती है। उदाहरण: चील, तोता, मोर, शुतुर्मुर्ग आदि।

स्तनपायी

ये समतापी प्राणी है तथा सभी प्रकार के वातावरण में पाये जाते है। हृदय चारकक्षीय होता है। इस वर्ग के सभी जंतुओं में नवजात के पोषण के लिए दुग्ध ग्रन्थियाँ पाई जाती है। इनकी त्वचा पर बाल, स्वेद और तेल ग्रंथियाँ पाई जाती है। इस वर्ग के जंतु शिशुओं को जन्म देने वाले होते हैं लेकिन कुछ अपवाद जेसे एकिडना अण्डे देता है व कंगारू अविकसित बच्चे को जन्म देता है जो पूर्ण विकास होने तक मार्सूपियम नामक थैली में रहते है। उदाहरण: मानव, डकबिल, प्लेटीपस, कंगारू, चमगादड़।

आवास के अनुसार जन्तु व पादप अनुकूलन

पादप व जन्तु विशेष अंगो, विशेष गुणों (आकारिकीय, कार्यिकीय, व्यवहारिक) व विशेष क्रियाओं द्वारा उनके वातावरण विशेष में जीवित रहने व जनन करने योग्य बनते हैं, जिन्हें अनुकूलन कहते है। अनुकूलन पर्यावरण के कारण उत्पन्न होते है तथा आनुवंशिक गुणों पर भी निर्भर होते है।

पादपों के आवास एवं अनुकूलन

जल की उपलब्धता व आवश्यकता के आधार पर पादपों को निम्न भागों में बाँटा गया है :

  • जलोद्भिद
  • मरूद्भिद्
  • समोद्भिद्
  • शीतोद्भिद्
  • लवणमृदोद्भिद्
जलोद्भिद

पादप जल में पाये जाते है। जैसे वेलिसनेरिया, अकोर्निया, सेजिटेरिया, रेननकुलस, हाइड्रिला, कमल, सिंघाडा आदि। इन पादपों को जड़ तंत्र अल्पविकसित होता है व जल का अवशोषण पादप सतह द्वारा किया जाता है। कुछ पादपों जैसे सिंघाडा की जड़े प्रकाश संश्लेषण करने के लिए हरे रंग की होती हे जिसे स्वांगीकारी जड़े कहते है। जड़ों में प्रायः मूलरोम के स्थान पर मूल कोटरिकायें पायी जाती है। कुछ पादप जेसे लेमना में जड़ सतुलन बनाने का कार्य करती है। जलीय पादपों का तना कोमल, पतला व लचीला होता है।

जल की सतह पर तैरने वाले पादपों की पत्तियाँ चैड़ी तथा जल निमग्न पादपों की पत्तियाँ कटी-फटी व रिबन के समान होती है। जलीय पादपों में परागण, फल व बीजों का प्रकीर्णन जल के द्वारा ही होता है, इस कारण बीज व फल भार में हल्के होते है। पर्ण, तना, मूल में वायु प्रकोष्ठ पाये जाते है। जलीय पादपों की कोशिकाओं में परासरण सान्द्रता कम होती है। इनमें यांत्रिक ऊतक व संवहन ऊतक की कमी होती है।

मरुद्भिद पादप

शुष्क आवास (मरुस्थलीय) या जलाभाव वाले क्षेत्रों में पाये जाते है। उदाहरण नागफनी, थोर, केक्टस आदि। इन पादपों की जड़ें जल प्राप्ति के लिए अत्यधिक गहरी, सुविकसित होती है। जड़ों में मूल रोम व मूल गोप होते है। इन पादपों का तना काष्ठीय होता है जिस पर बहुकोशिक रोम होते है। कुछ पादपों जैसे आक के तने पर मो और सिलिका का आवरण होता है। कुछ मरुद्भिद पादपों का तना हरा होता है जो जल संग्रह व प्रकाश संश्लेषण का कार्य करता है। जैसे ग्वारापाठा। मरुस्थ्लीय पौधे वाष्पोत्सर्जन द्वारा जल की बहुत कम मात्रा निष्कासित करते हैं।

मरुस्थ्लीय पौधे वाष्पोत्सर्जन द्वारा जल की बहुत कम मात्रा निष्कासित करते हैं। मरुस्थलीय पौधों में पत्तियाँ या तो अनुपस्थित होती है या बहुत छोटी होती है। कुछ पौधों में पत्तियाँ कांटो के रूप में होती है जैसे नागफनी जिससे वाष्पोत्सर्जन कम होता है। कई पादपों में पत्तियों पर भी मोमीपरत होती है व रन्ध्र पत्तियों के नीचे की सतह पर पायी जाती है। गर्ती रन्ध्र पाये जाते है। इनमें फलों व बीजों के चारों ओर कठोर आवरण पाया जाता है। इनमें फलों व बीजों के चारों ओर कठोर आवरण पाया जाता है। मरुद्भिद पादपों की कोशिकाओं में परासरण सान्द्रता अधिक होती है।

लवणमृदोदभिद

ये लवणयुक्त मृदा या दलदल में पाये जाते है। लवणीय मृदा में छंब्सए डहब्स2ए डहैव्4 आदि घुलनशील लवण पाये जाते है।। ऐसी मृदा में पाये जाने वाले पादपों को मेंग्रोव वनस्पति भी कहते है। उदाहरण राइजोफोरा, सालसोला आदि। इन पादपों की जड़े कम गहरी होती है। इसलिए स्तम्भ मूल परिवर्धित होकर दलदल में प्रवेश करके पादप को अतिरिक्त सहारा व स्थिरता प्रदान करती है। इन पादपों के जड़ें श्वसन के लिए ऑक्सीजन सहारा व स्थिरता प्रदान करती है। इन पादपों के जड़ें श्वसन के लिए ऑक्सीजन प्राप्ति के लिए भूमि से ऊपर आ जाती है तथा ऋणात्मक गुरुत्वानुवर्ती होती है। जड़ों के शीर्ष पर श्वसन के लिए सूक्ष्म रंध्र होते है जिनसे पादपों में ऑक्सीजन की पूर्ति होती है।

इन जड़ों को श्वसन मूलें या न्यूमेटोफोर कहते है। इनके तने क्लोराइड आयनों के संग्रह के लिए गुद्देदार होते है। पत्तियाँ छोटी, मांसल व चमकीली सतह वाली होती है। इन पादपों में बीज का अंकुरण फल के भीतर होता है व बीज से बीजपत्राधार व मूलांकुर बनने के पश्चात् नवोद्भिद उध्र्वाधर स्थिति में भूमि पर गिर जाता है, जिससे मूलांकुर सीधा कीचड़ में घुस जाता है। इस प्रकार के अंकुरण को सजीव प्रजक या जरायुज अंकुरण कहते है।

शीतोद्भिद

यह बर्फीली भूमि पर उगने वाली वनस्पति है। उदाहरण: साल्मोनेला, माॅस, लाइकेन। शीत आवास में अधिकांशतः शाक, माॅस व लाइकेन होते है। ये अल्पकालिक होते है। साल्मोनेला एक पुष्पी पादप है जो बर्फ के नीचे दबा रहता है तथा पुष्पन के समय उत्पन्न ऊष्मा से बर्फ के पिघलने से पादप का केवल पुष्प ही बाहर निकला रहता है।
समोद्भिद् पादप – ये जल, आर्द्र व ताप वाले आवास में पाये जाते है। इनमें मूलतंत्र सुविकसित व मूलरोम गोप सहित होता है। तना, वायवीय शाखित, मोटा व कठोर होता है। पत्तियाँ चैड़ी व पत्ती की दोनों सतहों पर रन्ध्र पाये जाते है। पादप पूर्ण रूप से विकसित व कार्यिकी प्रणाली समान्य होती है। उदाहरण: उद्यान पौधे व फसलें।

जन्तुओं के आवास व अनुकूलन

आवासों (जल, स्थल, वायु) के आधार पर जन्तुओं को

  • जलचर
  • स्थलचर
  • नभचर

में वर्गीकृत किया गया है।

जलचर

ये जलीय आवास में पाये जाते है। इनमें कुछ जन्तु लवणीय तथा कुछ अलवणीय जल में रहते हैं। इनमें कुछ जन्तु लवणीय तथा शरीर धारारेखीय होता है। तैरने में सहायक पंख या फिन पाये जाते है। श्वसन के लिए गलफड़ें होते है। अस्थियाँ हल्की व स्पंजी होती है। गर्दन अनुपस्थित या कम विकसित होती है। शरीर पर शल्क व श्लेष्म ग्रंथियाँ होती है। समुद्री आवास के जन्तुओं में लवण उत्सर्जक ग्रंथियाँ होती है। उभयचर जन्तु जेसे सेलामेण्डर में गलफड़ों द्वारा व फुफ्फुसीय श्वसन, दोनों होता है। उदाहरण: मछली, मेंढक, समुद्री कछुआ आदि।

स्थलचर

ये स्थल पर पाये जाते है। वातावरण में भिन्नता के आधार पर ये

  • मरुस्थलीय
  • शीत आवासीय आदि होते है।
मरुस्थलीय जन्तु

इनके पाद मरुस्थल में चलने, दौड़ने व खोदने के लिये रूपांतरित होते है। जैसे ऊँट के पैर गद्दीदार होते है। शरीर का रंग भूरा-मिट्टी जैसे होता है। इनका मल ठोस व मूत्र गाढ़ा होता है तथा स्वेद ग्रंथियाँ अनुपस्थित या कम विकसित होती है। कुछ जन्तुओं में जल का संरक्षण करने के लिए शरीर पर शल्क पाये जाते हैं। कुछ जन्तुओं जैसे मोलाॅक की त्वचा पानी प्राप्त करने के लिए आर्द्रताग्राही होती है। मिट्टी के कणों से सुरक्षा हेतु नासाछिद्र छोटे होते हैं तथा वाल्व द्वारा सुरक्षित रहते है तथा जल संग्राहक अंग होते है जैसे: ऊँट।
उदाहरण: ऊँट, फ्राइनोसोमा, जंगली चूहा, मोलाॅक आदि।

शीत आवासीय जन्तु

ये कम तापमान व बर्फीले क्षेत्रों में पाये जाते है। ठण्ड से रक्षा के लिए इनके शरीर पर घने लम्बे बाल होते है तथा सफेद रंग होने के कारण शिकारी जन्तुओं से इनकी सुरक्षा होती है।
उदाहरण – ध्रुवीय, खरगोश, मस्क बैल आदि।

नभचर

ये वायु में उड सकते है। इनकी अस्थियाँ खोखली व हल्की होती है। उड़ने के लिए अग्र पाद पंखों में रूपांतरित होते है। दृष्टि स्थलीय जन्तुओं की तुलना में तीव्र होती है। शरीर पंखों से ढका रहता है जिससे ताप नियत रहता है। पूँछ शरीर का संतुलन बनाये रखती है। भोजन ग्रहण करने के लिए चोंच होती है। शरीर बेलनाकार होता है।
उदाहरण: चिड़िया, बाज, तोता, कौआ, मोर आदि।

  • वैज्ञानिकों ने प्रत्येक जीव (पादप व जन्तु) को एक अद्वितीय वैज्ञानिक नाम दिया है जिससे वह पूरे विश्व में उसी नाम से जाना जाता है, इसे नाम पद्धति कहते है।
  • पादपों के वैज्ञानिक नाम के सर्वमान्य नियम ‘‘इन्टरनेशनल कोड ऑफ बोटेनिकल नोमेनक्लेचर (ICBN)’’ तथा जन्तुओं के ‘‘इन्टरनेशनल कोड ऑफ जूलोजीकल नोमेनक्लेचर (ICZN)’’ में दिये गये है।
  • नाम पद्धति के लिये हम जिस वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करते हैं, उसे द्विनाम पद्धति कहते है। इस नामकरण पद्धति को कैरोलस लीनियस ने सुझाया था।
  • द्विनाम पद्धति में पहला नाम जीनस (वंश) और दूसरा स्पीशीज (जाति) का होता है।
  • वैज्ञानिक नाम प्रायः लेटिन भाषा में होते हैं, परन्तु जब हाथ से अंग्रेजी भाषा में लिखते हैं तब दोनों शब्दों को अलग-अलग रेखांकित किया जाता है।
  • पहला अक्षर जो वंश का नाम बताता है व अंग्रेजी भाषा के बड़े अक्षर में होना चाहिये जब कि जाति नाम में छोटा अक्षर होना चाहिए। उदाहरण: आम का वैज्ञानिक नाम Mangifera indica है।

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