हैल्लो दोस्तो! आज हम आधुनिक जीव विज्ञान अर्थात् Modern Biology in Hindi के बारे में जानकारी प्राप्त करने वाले है। तो चलिए बढ़ते है आज के आर्टिकल की ओर।
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आधुनिक जीव विज्ञान (Modern Biology in Hindi)

दोस्तों आधुनिक जीवविज्ञान में कुछ ऐसे एकीकरण सिद्धान्तों को मान्यता दी गई है जो सभी जीवों पर समान रूप से लागू होते है। जिसमें विभिन्न वैज्ञानिकों द्वारा ‘जीव की उत्पत्ति’ के संदर्भ में अपने-अपने सिद्धान्त दिए गए है। जो निम्न प्रकार है:
संगठन का सिद्धान्त क्या है ?
इसके अनुसार ‘‘जीवन’’ से संबंधित सारी प्रक्रियाएँ रासायनिक एवं भौतिक सिद्धान्तों पर आधारित होती है। दूसरे शब्दों में जैव-क्रियाएँ जीव पदार्थ के घटकों पर नहीं, वरन् इसके भौतिक एवं रासायनिक संगठन पर निर्भर करती हैं। यदि हमें इस संगठन का पूरा ज्ञान हो जाए तो हम परखनली में ‘‘जीव की उत्पत्ति’’ कर सकते है।
जीवांत-जीवोत्पत्ति का सिद्धान्त क्या है ?
वैज्ञानिक मानते है कि ‘‘जीव पदार्थ’’ की उत्पत्ति निर्जीव पदार्थ के संगठन में क्रमिक विकास से हुई है। ऐसे ‘’रासायनिक उद्विकास’’ के लिए आवश्यक वातावरणीय दशाएँ पृथ्वी पर अब नहीं है, अरबों साल पहले आदिपृथ्वी पर थी।
वर्तमान दशाओं में पृथ्वी पर नए जीवों की उत्पत्ति केवल पहले से विद्यमान जीवों से ही हो सकती है। वर्तमान विषाणुओं को हम चाहे सूक्ष्मतम् जीव मानें या न मानें, इनकी उत्पत्ति भी पहले से विद्यमान विषाणुओं से ही हो सकती है।
ध्यातव्य है कि 17वीं शताब्दी के इटली के वैज्ञानिक फ्रेनसेक्को रेडी ने प्रयोग के आधार पर यह सिद्ध कर दिया था कि ‘‘जीव की उत्पत्ति जीव से ही सम्भव है निर्जीव वस्तुओं से नहीं।’’
कोशिका सिद्धान्त क्या है ?
यह सिद्धान्त श्लाइडेन और श्वान ने दिया कि सारे जीवों (जन्तु, पादप, जीवाणु या बैक्टीरिया आदि) में शरीर एक या अधिक कोशिकाओं और इनसे उत्पादित पदार्थों का बना होता है। नई कोशिकाएँ केवल पहले से विद्यमान कोशिकाओं के विभाजन से बन सकती हैं।
समस्त कोशिकाओं की भौतिक संरचना, रासायनिक संघठन एवं उपापचय में एक मूल समानता होती है तथा किसी भी बहुकोशिकीय जीव का ‘‘जीवन’’ इसके शरीर की समस्त कोशिकाओं का योग होता है।
जैव-विकास का सिद्धान्त क्या है ?
प्रकृति में आज विद्यमान विविध प्रकार के जीवों में से किसी की भी नवीन सृष्टि नहीं हुई है – इन सबकी उत्पत्ति किसी-न-किसी समय रचना में अपेक्षाकृत सरल पूर्वजों से ही, किंचित् परिवर्तनों के पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचय के फलस्वरूप हुई है।
जीन सिद्धान्त क्या है ?
पीढ़ी-दर-पीढ़ी, माता-पिता के लक्षण सन्तानों में कैसे जाते हैं ? इसके लिए चाल्र्स डार्विन ने अपने ‘‘सर्वजनन मत’’ में कहा कि माता-पिता के शरीर का प्रत्येक भाग अपने अतिसूक्ष्म नमूने या प्रतिरूप बनाता है जो अण्डाणुओं एवं शुक्राणुओं में समाविष्ट होकर सन्तानों में चले जाते हैं।
ऑगस्त वीजमान ने अपने ‘‘जननद्रव्य प्रवाह मत’’ में कहा कि अण्डे से नए जीव शरीर के भ्रूणीय परिवर्धन के दौरान, प्रारम्भ में ही ‘‘जननद्रव्य’’ ‘‘देहद्रव्य’’ से पृथक हो जाता है। यही जननद्रव्य सन्तानों में प्रदर्शित होने वाले लक्षणों को जनकों से ले जाता है।
अब हम स्पष्ट जान गए हैं कि यह जननद्रव्य कोशिकाओं के केन्द्रक में उपस्थित गुणसूत्रों के डी.एन.ए. अणुओं के रूप में होता है और इन अणुओं के सूक्ष्म खण्ड, जिन्हें जीन्स कहते हैं, आनुवंशिक लक्षणों को जनकों से सन्तानों में ले जाते हैं।
जीन्स में ही किंचित परिवर्तनों के संचित होते रहने से समान पूर्वजों से नई-नई जीव-जातियों का उद्विकास होता है।
एन्जाइम सिद्धान्त क्या है ?
प्रत्येक जीव कोशिका में प्रतिपल हजारों रासायनिक अभिक्रियाएँ होती रहती हैं। इन्हें सामुहिक रूप से कोशिका का उपापचय कहते हैं। प्रत्येक अभिक्रिया एक विशेष कार्बनिक उत्प्रेरक की मध्यस्थता के कारण सक्रिय होकर पूरी होती है।
जैव रासायनिक आनुवंशिकी :
जार्ज बीडल और एडवर्ड टैटम की बहुस्वीकृत परिकल्पना – ‘‘एक जीन → एक एन्जाइम → एक उपापचयी अभिक्रिया’’ – के अनुसार जीव के प्रत्येक संरचनात्मक एवं क्रियात्मक लक्षण पर जीनी नियन्त्रण होता है, क्योंकि प्रत्येक उपापचयी अभिक्रिया एक विकर अर्थात् एन्जाइम द्वारा और प्रत्येक एन्जाइम का संश्लेषण एक जीन विशेष के द्वारा नियन्त्रित होता है।
विभेदक जीन क्रियाशीलता :
किसी भी बहुकोशिकीय जीव शरीर की समस्त कोशिकाएँ युग्मनज अर्थात् जाइगोट नामक एक ही कोशिका से प्रारम्भ होकर बारम्बार के समसूत्री विभाजनों के फलस्वरूप बनती हैं, इन सब में जीन-समूह बिल्कुल समान होता है।
अतः बीडल और टैटम की उपरोक्त परिकल्पना के अनुसार तो एक शरीर की सारी कोशिकाएँ रचना और क्रिया में समान होनी चाहिए, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता। आँख, नाक, यकृत, वृक्क, हड्डी, त्वचा, कान आदि शरीर के विविध अंग और प्रत्येक अंग के विविध भाग, रचना और कार्यिकी में, बहुत ही असमान कोशिकाओं के बने होते हैं।
एक ही जीव शरीर की सारी कोशिकाओं में समान जीन-समूह होते हुए भी इनके बीच परस्पर इतने विभेदीकरण का कारण यह होता है कि विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं में जीन-समूह के कुछ अंश ही संक्रिय होते हैं, शेष अंशों को निष्क्रिय कर दिया जाता है।
समस्थैतिकता क्या है ?
सफल ‘‘जीवन’’ के लिए जीवों में अपने वातावरण में होने वाले परिवर्तनों से प्रभावित होकर इन्हीं के अनुसार अपने शरीर की कार्यिकी एवं उपापचय में आवश्यक परिवर्तन करके शरीर एवं अन्तः वातावरण की अखण्डता बनाए रखने की अभूतपूर्व क्षमता होती है। इसकी खोज क्लाॅडी बरनार्ड ने की। अन्तःवातावरण की अखण्डता बनाए रखने की क्षमता को वाल्टर बी. कैनन ने समस्थापन या समस्स्थैतिकता अर्थात् होमियोस्टैसिस संज्ञा प्रदान किया।
तो दोस्तों आज हमने आधुनिक जीव विज्ञान (Modern Biology in Hindi) के विभिन्न सिद्धान्तों के बारे में जानकारी प्राप्त की। अगर आपको दी गई जानकारी अच्छी लगी तो इसे अपने दोस्तों के साथ शेयर जरूर करें। साथ ही इसी प्रकार की बेहतरीन जानकारी के लिए हमारे साथ बने रहें।
धन्यवाद!
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