हैल्लों दोस्तों आज हम जैव विकास के कुछ महत्वपूर्ण सिद्धान्तों (Theories of evolution in Hindi) के बारे में जानकारी प्राप्त करने वाले हैं। जिसमें हम विभिन्न प्रकार के वैज्ञानिकों द्वारा जैव विकास के मतों का अध्ययन करेंगें। तो चलिए बढ़ते है आज के आर्टिकल की ओर।
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जैव विकास के सिद्धान्त (Theories of evolution in Hindi)

दोस्तों जैव विकास या कार्बनिक विकास (Organic Evolution) के प्रमाण सिद्ध करते हैं कि हमारी पृथ्वी पर पहले की, पूर्वज (ancestral) जातियों की भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की आबादियाँ अपने-अपने क्षेत्रों की वातावरणीय दशाओं के अनुसार अनुकूलित होकर शनैः शनैः एक-दूसरी से तथा मूल पूर्वज जाति से भिन्न होती जाती हैं और इनके इस प्रकार विभिन्न दिशाओं में विकसित होने से नई-नई जीव-जातियाँ बनती रहती हैं। इस संबंध में स्पष्ट सिद्धान्त 19वीं सदी में प्रेषित हुए। इनमें चार सिद्धान्त प्रमुख हैं, जो निम्न है:
- लैमार्कवाद
- डार्विनवाद
- नवडार्विनवाद
- उत्परिवर्तनवाद
1. लैमार्कवाद (Lamarckism in Hindi)
दोस्तों जैव विकास परिकल्पना पर पहला तर्कसंगत सिद्धान्त फ्रांसीसी जीव-वैज्ञानिक, जीन बैप्टिस्टे डी लैमार्क ने प्रस्तुत किया जो सन् 1809 में उनकी पुस्तक ‘‘फिलाॅसफी जूलोगीक’’ में छपा। इसे लैमार्क का सिद्धान्त (Lamarckian Theory) या ‘‘उपार्जित लक्षणों की वंशागति का सिद्धान्त (Theory of Inheritance of Acquired Characters) कहते है। यह चार मूल धारणाओं पर आधारित था। जो निम्न प्रकार है:
- विकास के दौरान जीवों एवं उनके अंगों के आमाप में वृद्धि होती है।
- यदि किसी जीव में किसी नए अंग के बनने से उसकी उत्तरजीविता (survival) बढ़ सकती है, तो उस जीव में उस अंग की उत्पत्ति होती है।
- जीवों के जिन अंगों का लगातार उपयोग होता रहता है, वे पीढ़ी-दर-पीढी और अधिक बड़े एवं पुष्ट होते जाते हैं, जबकि जिन अंगों का उपयोग नहीं या बहुत कम हो रहा होता है, वे धीरे-धीरे कमजोर एवं छोटे होते जाते हैं और अंत में उनका लोप हो जाता है।
- अंगों के उपयोग एवं न उपयोग करने के कारण उत्पन्न ये परिवर्तन वंशागत (heritable) होते है, और ये समय के साथ परिमाण में बढ़ते जाते हैं यह आखिरी अवधारणा अर्जित लक्षणों की वंशागति का सिद्धान्त (the theory of inheritance of acquired characters) कहलाती है।
लैमार्क के जीवनकाल में ही उनके सिद्धान्त की आलोचना होने लगी थी। कई प्रयोगों द्वारा अर्जित लक्षणों की वंशागति को गलत साबित किया जा चुका है। लैमार्क के कई अनुयायियों ने लैमार्कवाद में परिवर्तन किए। इसके एक रूपांतरण (modification) के अनुसार, जीवों के लक्षणों में परिवर्तन वातावरण के कारण उत्पन्न होते हैं।
लैकिन अब लैमार्कवाद पूरी तरह अमान्य है, और इसका केवल ऐतिहासिक महत्त्व है।
2. डार्विनवाद (Darwinism in Hindi)
इस सिद्धान्त को डार्विन ने 1859 में अपनी पुस्तक ‘स्पेसीजों का उद्भव’ में प्रतिपादित किया था। इस पुस्तक में उन्होंने अटलांटिक एवं प्रशंात महासागरों में स्थित कई द्वीपों में जीव-जंतुओं पर एकत्रित आँकड़ों की सहायताा से प्राकृतिक वरण (natural selection) द्वारा स्पेसीजों के उद्भव को प्रमाणित करने का प्रयास किया था।
डार्विनवाद की मुख्य बातों को सरल रूप में इस प्रकार से कहा जा सकता है:
- किसी स्पेसीज के व्यष्टियों की संख्या गुणोत्तर दर (geometric rate) से बढ़ती है, जबकि उनके लिए भोजन आदि केवल सीमित मात्रा में ही उपलब्ध होते हैं।
- इसके परिणामस्वरूप, एक ही स्पेसीज के सदस्य भोजन आदि के लिए आपस में स्पर्धा (competition) करते हैं, जिसे ‘जीवन-संघर्ष’ (struggle for existence) कहा जाता है।
- एक ही स्पेसीज के विभिन्न व्यष्टियों में विभिन्न लक्षणों के लिए विविधता (variation) पाई जाती है, जिसे डार्विन ने वंशागत (heritable) माना था। डार्विन के अनुसार ‘जीवन-संघर्ष’ में किसी स्पेसीज के केवल वे ही सदस्य जीवित रहेंगे, जो कि सबसे अधिक योग्य (fit) होंगे। इसे इन्होंने योग्यतम की उत्तरजीविता (survival of the fittest) कहा। इस पूरी प्रक्रिया को प्राकृतिक वरण (natural selection) कहा जाता है।
इस प्रकार डार्विन ने विकास के सिद्धान्त की दो प्रमुख बाते हैं:
- वंशागत (heritable) विविधता (variation) की उत्पत्ति एवं
- प्राकृतिक वरण के कारण केवल उन विविधताओं, जिनसे कि उत्तरजीविता में वृद्धि होती है, वाले व्यष्टियों का जीवित रहना। इस प्रकार प्राकृतिक वरण के कारण ही विकास होता है, और प्राकृतिक वरण उस वातावरण पर निर्भर होता है, जिसमें कि संबंधित स्पेसीज, स्थित होती है। फलतः प्राकृतिक वरण विकास के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है और यही डार्विनवाद की प्रमुख विशेषता है।
प्राकृतिक वरण तभी कारगर हो सकता है जबकि, किसी स्पेसीज में वंशागत विविधता (heritable variation) उपस्थित हो। डार्विन ने जीवों में दो प्रकार की विविधता बताई जो निम्न है:
- सतत (continous)
- असतत (discontinuous)
डार्विन के अनुसार विकास सतत विविधता पर आधारित होता है, और यह विविधता अर्जित लक्षणों की वंशागति के कारण उत्पन्न होती है।
3. नवडार्विनवाद (Neo-Darwinism in Hindi)
कुछ समय तक डार्विनवाद में वैज्ञानिकों का अटूट विश्वास बना रहा, किन्तु 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में डार्विनवाद के प्रति वैज्ञानिकों में संदेह और अविश्वास उत्पन्न हुआ। इसका प्रमुख कारण था सन् 1900 में हाॅलैण्ड में डीब्रीज, जर्मनी में कोरेन्स एवं आस्ट्रिया में शेरमैक द्वारा मेण्डल के आनुवांशिकी के सिद्धान्तों की पुनर्खोज।
मेण्डलवाद से स्पष्ट हुआ कि आनुवंशिक लक्षणों को डीएनए (DNA) के बने जीन्स (genes) ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में ले जाते हैं तथा लक्षणों के दृश्यरूपों की विभिन्नताएँ भी जीन्स की विभिन्नताओं के कारण होती हैं। यह तथ्य डार्विनवाद के लिए कुठाराघात सिद्ध हुआ। फलतः डार्विनवाद के समर्थकों ने इसे जीनवाद के ढाँचे में ढालकर नव-डार्विनवाद या संलिष्ट सिद्धान्त (synthetic theory) नाम दिया। इस सिद्धान्त में निम्नलिखित बातों की व्याख्या की गई है:
- आनुवंशिक विविधता की उत्पत्ति की क्रियाविधि
- जननात्मक विलगन की उत्पत्ति एवं विकास में उसकी भूमिका
- प्राकृतिक वरण की क्रियाविधि एवं विकास में उसका योगदान
- अन्य विकासीय कारकों (evolutionary factors), जैसे यादृच्छिक अपसरण (random drift), आण्विक चालन (molecular drive) आदि, की चान तथा विकास में उनका योगदान।
4. उत्परिवर्तनवाद (Mutation Theory in Hindi)
इस सिद्धान्त को हालैंड के वनस्पतिशास्त्री ह्यगो डि ब्रीज (Hugo de vries; 1840-1935) ने प्रस्तावित किया था। उन्होंने जंगली पौधा सान्ध्य प्रिमरोज अर्थात् ओयनोथेरा लैमार्कियाना (Oenothera lamarckiana) में कई असतत (discrete) विविधताओं (variations) का वर्णन किया, जिसे उन्होंने उत्परिवर्तन (mutation) कहा। डि ब्रीज ने प्रत्येक उत्परिवर्तन (mutant) कहा।
डि ब्रीज ने प्रत्येक उत्परिवर्तन को एक भिन्न स्पेसीज बताया, और निष्कर्ष दिया कि उत्परिवर्तन के कारण एक ही कदम में एक नई स्पेसीज का उद्भव हो जाता है। उनके अनुसार, विकास में प्राकृतिक वरण महत्त्वपूर्ण नहीं होता है; विकास केवल उत्परिवर्तन के कारण होता है। इस धारणा के अनुसार, चूँकि उत्परिवर्तन यादृच्छिक (random), अर्थात्, दिशाहीन, होता है, अतः विकास की भी कोई निश्चित दिशा नहीं होती है। ये लाभदायक, या हानिकारक अथवा निरर्थक हो सकते हैं।
प्राकृतिक वरण (natural selection) का एक महत्त्वपूर्ण परिणाम यह है कि कोई भी समष्टि अपने वातावरण में क्रमशः और अधिक अनुकूलित (adapted) होती जाती है। उत्परिवर्तनवादियों (mutationists) की यह धारणा थी कि प्राकृतिक समष्टियों में अनुकूलन (adaptation) हमेशा से उपस्थित होता है, और यह प्राकृतिक वरण के परिणामस्वरूप उत्पन्न नहीं होता है। अब यह लगभग सर्वमान्य है कि सभी जीवों में आनुवंशिक विविधता (genetic variation) का आदि स्रोत उत्परिवर्तन ही है। लेकिन इस आनुवंशिक विविधता में से उपयोगी विविधता को छाँटकर विकास को जीव के लिए उपयोगी दिशा में बढ़ाना प्राकृतिक वरण का काम है।
जैव विकास के वैज्ञानिक स्तम्भ तथा उनका मुख्य योगदान: एक दृष्टि में | |||
नाम | वर्ष | निवासी | योगदान |
एम्पीडोक्लीज | 493-435 ई. पू. | ग्रीस | जैव विकास कल्पना के जनक |
जे. बी. लैमार्क | सन् 504-433 ई. पू. | फ्रांस | सबसे पहला तर्कसंगत जैव विकास सिद्धान्त लैमार्कवाद के प्रतिपादक फिलाॅसोफिक जूलोजीक पुस्तक का प्रकाशन |
चाल्र्स डार्विन | सन् 1809-82 ⇒सन् 1931-36 सन् 1859 | इंग्लैण्ड | सर्वमान्य सिद्धान्त डार्विनवाद या प्राकृतिक चयनवाद के प्रतिपादक बीगल विश्व खोजी जहाज द्वारा यात्रा ओरिजिन ऑफ स्पीसीज नामक पुस्तक का प्रकाशन |
एल्फ्रेड रसेल वैलेस | सन् 1820-1913 सन् 1870 | इंग्लैण्ड | डार्विन के सिद्धान्त में सहयोगी कन्ट्रिब्यूशन्स टु दि थ्योरी ऑफ नैचुरल सेलेक्शन पुस्तक का प्रकाशन |
ह्यूगो डी व्रीज | सन् 1848-1935 सन् 1901 | हाॅलैण्ड | उत्परिवर्तन के प्रतिपादक म्यूटेशन थ्योरी का प्रकाशन |
तो दोस्तों आज के आर्टिकल में हमने जैव विकास (Theories of evolution in Hindi) की अवधाराणाओं के बारे में जानकारी प्राप्त की। अगर आपको दी गई जानकारी अच्छी लगी। तो काॅमेंट बाॅक्स में जरूर बताए और अपना आवश्यक सुझाव देवें। और इसी प्रकार की बेहतरीन जानकारी के लिए हमारे साथ बने रहें।
धन्यवाद!
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